भक्त मंडली

शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

प्रथम पुरुष स्त्रीवादी :आदिकवि वाल्मीकि


प्रथम पुरुष स्त्रीवादी :आदिकवि वाल्मीकि

भूतल के प्रथम काव्य ''रामायण '' के रचनाकार श्री वाल्मीकि ने अपने इस वेदतुल्य आदिकाव्य ''रामायण'' द्वारा न केवल मर्यादा मूर्ति  श्री राम के चरित्र की रचना की बल्कि तत्कालीन समाज में स्त्री -जीवन की समस्याओं का यथार्थ चित्रण भी किया है .न केवल एक रचनाकार के रूप में वरन स्वयं ''रामायण'' के ''उत्तरकाण्ड '' के ''षणवतित्म: [९६ ] ''सर्ग में सीता की शुद्धता का समर्थन करते हुए-उन्होंने यह सिद्ध किया है कि वह सम्पूर्ण विश्व के इतिहास में प्रथम पुरुष स्त्रीवादी थे .पश्चिम से नारीवाद की उत्पत्ति बतलाने वाले विद्वान भी यदि ''रामायण ''में महर्षि वाल्मीकि द्वारा चित्रित स्त्री जाति की समस्याओं ,स्त्री संघर्ष ,स्त्री -चेतना का अध्ययन करें तो निश्चित रूप से वे भी यह मानने के लिए बाध्य होंगे कि जितना प्राचीन विश्व का इतिहास है उतना ही प्राचीन है -स्त्री जाति के संघर्ष का इतिहास -वह स्त्री चाहे देव योनि की हो अथवा राक्षस जाति की .
                 ''स्त्री जाति की हीन दशा ''वर्तमान में जितना बड़ा बहस का मुद्दा बन चुका है ,उसे उठाने का श्रेय महर्षि वाल्मीकि को ही जाता है .राजा दशरथ के पुत्र -प्राप्ति हेतु लालायित होने को महर्षि इस श्लोक के द्वारा उकेरते हैं -
    ''तस्य चैवंप्रभावस्य ............''[बालकाण्डे ;अष्टम:सर्ग:;
श्लोक-१]  अर्थात सम्पूर्ण धर्मो को जानने वाले महात्मा दशरथ ऐसे प्रभावशाली होते हुए भी पुत्रों के लिए सदा चिंतित रहते थे .उनके वंश को चलाने वाला कोई पुत्र नहीं था .]''

               स्त्री की हीन दशा का मुख्य कारक जहाँ यह था कि पुत्री को वंश चलाने वाला नहीं माना जाता था वही पुरुष-प्रधान समाज में कन्या का पिता होना भी अपमानजनक माना जाने लगा था .महर्षि वाल्मीकि भगवती सीता के मुख से इसी तथ्य को उद्घाटित करते हुए लिखते हैं-
          
     'सदृशाच्चापकृष्ताच्च ........''[अयोध्याकांडे अष्टादशाधिकशततम:
सर्ग: ,श्लोक -३५ ][अर्थात संसार में कन्या के पिता को ,वह भूतल पर इंद्र के तुल्य क्यों न हो ,वर पक्ष के लोंगों से ,वे समान या अपने से छोटी हैसियत के ही क्यों न हों ,प्राय: अपमान उठाना पड़ता है ]
                            

इसी प्रकार के उद्गार महर्षि वाल्मीकि ने उत्तर-कांड  के ''त्रयोदश : सर्ग '' के श्लोक ११ व् १२ में मंदोदरी के पिता राक्षसराज मय के मुख से भी प्रकट करवाएं हैं -
''कन्या पित्र्त्वं......स्थाप्य तिष्ठति ''
[अर्थात -मान की अभिलाषा रखने वाले प्राय: सभी लोगों के लिए कन्या का पिता होना कष्टकारक होता है .कन्या सदा do  कुलो को संशय में डाले रहती है ]
महर्षि वाल्मीकि ने स्त्री के विरुद्ध किये जाने वाले अपराधों को भी स्थान-स्थान पर उद्धृत किया है .आज भी जहाँ 'बलात्कार ''जैसे अमानवीय अपराध को स्त्री की पवित्र -अपवित्रता के साथ jodkar बलात्कृत स्त्री को नारकीय परिस्थितियों में धकेल दिया जाता है उसी व्यथा को महर्षि ने रामायण काल में घटित ''अहल्या -उद्धार-प्रसंग'के माध्यम से उद्घाटित करने का सशक्त प्रयास किया है .''उत्तरकाण्ड 'के 'त्रिंश सर्ग:' के ३९वे व् ४० वे श्लोक में अहल्या अपना पक्ष रखते हुए कहती हैं -
''सा तम प्रसाद्यामास ....कर्तुम्हरसी ''
[अर्थात -विप्रवर !बहम्र्षे! देवराज इंद्र ने आपका ही रूप धारण कर मुझे कलंकित किया है .मैं उसे पहचान न सकी थी .अत: अनजाने में मुझसे यह अपराध हुआ ,स्वेच्छाचारवश  नहीं .इसलिए आपको मुझपर कृपा करनी चाहिए ]
किन्तु अहल्या के पतिदेव गौतम ऋषि उन्हें क्षमा नहीं करते .हजारों वर्षों की तपस्या  के पश्चात् श्री राम द्वारा चरण छूकर उन्हें सम्मानित किये जाने पर अहल्या पुन: पति सामीप्य को प्राप्त करती हैं .
पुरुष-अहम् किस प्रकार स्त्री-जाति के सम्मान को रौंदता आया है -इसका उल्लेख महर्षि वाल्मीकि ने रावन द्वारा रम्भा से बलात्कार,वेदवती के साथ दुर्व्यवहार ,देवताओं की कन्याओं व् स्त्रियों का अपहरण आदि प्रसंगों द्वारा किया है .रावन के इसी प्रकार के पापों का दंड देने के लिए श्री राम व् माता सीता के मनुष्य रूप में अवतार लेने का वर्णन महर्षि ने किया है .
महर्षि वाल्मीकि स्त्री -जाति को सम्मान दिए जाने की वकालत करते हुए अपने आदर्श मर्यादा-पुरषोंतम श्री राम तक को कटघरे में खड़ा कर देते हैं -जब श्री राम भगवती सीता से अयोध्या के  जन समुदाय के समक्ष अपनी शुद्धता प्रमाणित करने के लिए कहते हैं .महर्षि यद्यपि भविष्य दृष्टा  थे किन्तु उन्होंने अपने वचनों द्वारा श्री राम व् अयोध्या के जन समुदाय को संतुष्ट करने का प्रयास भी किया .उन्होंने कहा-
''लोकाप्वादभितास्य .......... तम्नुग्याअह्रसी   ''
[उत्तरकाण्ड षणवतितम: सर्ग: श्लोक -१७ ]
[अर्थात महान व्रतधारी श्री राम !लोकापवाद से डरे हुए आपको सीता अपनी शुद्धता का विश्वास दिलाएगी .इसके लिए आज्ञा दें ]

''इमौ तू .....ब्रवीमि ''[श्लोक-१८]

[अर्थात-ये दोनों कुमार कुश और लव जानकी के गर्भ से जुड़वे पैदा हुए हैं .ये दोनों आपके ही पुत्र हैं और आपके ही सामान दुर्धर्ष वीर हैं ,यह मैं आपको सच्ची बात बता रहा हूँ ]

''प्रचेतसोहहम......पुत्रकौ ''[श्लोक-१९]
''बहुवर्ष ........मैथिली ' [श्लोक २० ]

[अर्थात-रघुकुलनंदन !मैं प्रचेता [वरुण ]का दसवां पुत्र हूँ .मेरे मुह से कभी झूठ बात nikli हो .इसका  मुझे स्मरण  नहीं .मैं सत्य कहता हूँ ये दोनों आपके ही पुत्र हैं [१९].मैंने कई हज़ार वर्षों तक भारी तपस्या की है यदि मिथिलेशकुमारी सीता में कोई भी दोष हो तो मुझे उस तपस्या का फल न मिले (२०) ]
स्पष्ट है कि मानव इतिहास में ऐसा पुरुष ढूढने पर भी नहीं मिलेगा जो पति द्वारा त्यागी गयी,जनसमुदाय   द्वारा लांछित की गयी स्त्री को और उसके  गर्भ में पल  रहे बालकों को न केवल आश्रय देकर सम्पूर्ण समाज से लोहा ले और भरी सभा में अपने द्वारा संचित हजारों वर्षों के पुण्यों को दांव पर ''केवल एक स्त्री की  अस्मिता को पुनर्स्थापित'' करने हेतु लगा दे .महर्षि वाल्मीकि इसी कारण स्त्री -जाति के मूक  मुख में स्वर भरने वाले ;माता के सम्मान हेतु ''लव-कुश '' जैसी संघर्षशील संतानों   के गुरु-समस्त  मानव जाति के इतिहास में प्रथम पुरुष स्त्रीवादी थे -यह मानने में किसी  प्रकार की शंका व्यक्त नहीं की जानी चाहिए . 

[शोध ग्रन्थ  -श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण :गीताप्रेस गोरखपुर संवत -२०६३] 
शिखा कौशिक
                  
                         
           

रविवार, 26 अगस्त 2012

''विद्रोही सीता की जय'' लिख परतें इतिहास की खोलूँगी !


''विद्रोही सीता की जय'' लिख परतें इतिहास की खोलूँगी !
Hindu Goddess Sita

त्रेता में राम दरबार सजा ; थी आज परीक्षा सीता की ,
तुम  करो  प्रमाणित  निज  शुचिता थी राजाज्ञा रघुवर की ,
वाल्मीकि  संग खड़ी सिया के मुख पर क्षोभ के भाव दिखे ,
सभा उपस्थित जन जन संग श्री राम लखें ज्यों चित्रलिखे . 
बोली सीता -श्री राम  सुनो  अब और परीक्षा ना दूँगी 
नारी जाति सम्मान हित अपवाद सभी  मैं  सह लूंगी !
 प्रभु आप  निभाएं राजधर्म मैं नारी धर्म निभाऊंगी ;
आज आपकी आज्ञा  का पालन न मैं कर पाऊँगी ,
स्वाभिमानी  नारी बन सब राजदंड मैं भोगूंगी 
नारी जाति सम्मान हित ....
जो अग्नि परीक्षा पहले दी उसका भी मुझको खेद है ,
ये कुटिल आयोजन  बढ़वाते  नर-नारी में भेद हैं ,
नारी विरूद्ध अन्याय पर विद्रोह की भाषा बोलूंगी 
नारी जाति सम्मान हित .......
था नीच अधम पापी रावण जिसने था मेरा हरण किया ,
पर अग्नि परीक्षा ली राजन क्यों आपने ये अपराध किया ?
हर  नारी मुख से  हर युग में ये प्रश्न आपसे पूछूंगी ,
नारी जाति सम्मान हित .....

नारी का यूं अपमान न हो इसलिए त्यागा रानीपद ;
मैने छोड़ा साकेत यूं ही ना घटे कभी नारी का कद ,
नारी का मान बढ़ाने को सब मौन मैं अपने तोडूंगी ,
नारी जाति सम्मान हित ....

अग्नि परीक्षा शस्त्र लगा पुरुषों के हाथ मेरे कारण ;
भावुकता में ये भूल हुई पाप हुआ मुझसे दारुण ,
मत झुकना तुम अन्याय समक्ष सन्देश सभी को ये दूँगी .
नारी जाति सम्मान  हित ....


इस महाभयंकर भूल की मैं दूँगी  खुद को अब यही सज़ा ;
ये भूतल फटे अभी इस क्षण जाऊं इसमें अविलम्ब समा ,
अपराध किया जो मैंने ही दंड मैं उसका झेलूंगी ,
नारी जाति सम्मान हित .....
पुत्री सीता की व्यथा देख फट गयी धरा माँ की छाती ;
बोली ये जग है पुरुषों का नारी उनको कब है भाती  ?
आ पुत्री मेरी गोद में तू तेरे सब कष्ट मिटा  दूँगी .
नारी जाति सम्मान हित .....
सीता के नयनों में उस  क्षण अश्रु नहीं अंगारे  थे ;
विद्रोही सीता रूप देख उर काँप रहे वहाँ सारे थे ,
फिर समा गयी सीता कहकर ये अत्याचार न भूलूंगी .
नारी जाति सम्मान हित ....
नारी धीरज को मत परखो सीता ने ये सन्देश दिया ;
सन्देश यही एक देने को निज प्राणों का उत्सर्ग किया ,
'विद्रोही सीता की जय ''लिख परतें इतिहास की खोलूँगी 
जय सीता माँ की बोलूंगी ..जय सीता माँ की बोलूंगी !
                              

बुधवार, 22 अगस्त 2012

'श्री राम ने सिया को त्याग दिया ?''-एक भ्रान्ति !






श्री गणेशाय नम: 
''हे गजानन! गणपति ! मुझको यही वरदान दो 
हो सफल मेरा ये कर्म दिव्य मुझको ज्ञान दो 
हे कपिल ! गौरीसुत ! सर्वप्रथम तेरी वंदना 
विघ्नहर्ता विघ्नहर साकार करना कल्पना ''
                     
''''सन्दर्भ  ''''
                                             ॐ नम : शिवाय !
                                            श्री सीतारामचन्द्रभ्याम नम :

'श्री  राम ने सिया को त्याग  दिया  ?''-एक  भ्रान्ति !
  Jai Shri Ram
[google se sabhar ]


  सदैव से इस प्रसंग पर मन में ये विचार  आते रहे हैं कि-क्या आर्य कुल नारी भगवती माता सीता को भी कोई त्याग सकता है ...वो भी नारी सम्मान के रक्षक श्री राम ?मेरे मन में जो विचार आये व् तर्क की कसौटी पर खरे उतरे उन्हें  इस रचना के माध्यम से मैंने प्रकट करने का छोटा सा प्रयास किया है -

हे  प्रिय  ! सुनो  इन  महलो  में
अब और  नहीं  मैं  रह  सकती  ;
महारानी  पद पर रह आसीन  
जन जन का क्षोभ  न  सह  सकती .

एक गुप्तचरी को भेजा था 
वो  समाचार ये लाई है 
''सीता '' स्वीकार   नहीं जन को 
घर रावण  के रह  आई   है .

जन जन का मत  स्पष्ट  है ये 
चहुँ और हो  रही  चर्चा है ;
सुनकर ह्रदय छलनी होता है 
पर सत्य तो सत्य होता है .

मर्यादा जिसने लांघी  है 
महारानी कैसे हो सकती ?
फिर जहाँ उपस्थित  प्रजा न हो 
क्या अग्नि परीक्षा हो सकती ?

हे प्रभु ! प्रजा के इस  मत ने 
मुझको भावुक  कर  डाला है ;
मैं आहत हूँ ;अति विचलित हूँ 
मुश्किल से मन  संभाला है .

पर प्रजातंत्र में प्रभु मेरे
 हम प्रजा के सेवक  होते  हैं ;
प्रजा हित में प्राण त्याग की 
शपथ भी तो हम लेते हैं .

महारानी पद से मुक्त करें 
हे प्रभु ! आपसे विनती है ;
हो मर्यादा के प्रहरी तुम 
मेरी होती कहाँ गिनती है ?

अश्रुमय  नयनों  से  प्रभु  ने 
तब सीता-वदन  निहारा था ;
था विद्रोही भाव युक्त 
जो मुख सुकोमल प्यारा था . 

गंभीर स्वर में कहा प्रभु ने 
'सीते !हमको सब ज्ञात है 
पर तुम हो शुद्ध ह्रदय नारी 
निर्मल तुम्हारा गात है .

ये  भूल  प्रिया  कैसे  तुमको 
बिन अपराध करू दण्डित ?
मैं राजा हूँ पर पति भी हूँ 
सोचो तुम ही क्षण भर किंचित . 

राजा के रूप में न्याय करू 
तब भी तुम पर आक्षेप नहीं ;
एक पति रूप में विश्वास मुझे 
निर्णय का मेरे संक्षेप यही .

सीता ने देखा प्रभु अधीर 
कोई त्रुटि नहीं ये कर बैठें ;
''राजा का धर्म एक और भी है ''
बोली सीता सीधे सीधे .

'हे प्रभु !मेरे जिस क्षण तुमने 
राजा का पद स्वीकार था ;
पुत्र-पति का धर्म भूल 
प्रजा -हित लक्ष्य तुम्हारा था .

मेरे कारण विचलित न हो 
न निंदा के ही पात्र बनें ;
है धर्म 'लोकरंजन 'इस क्षण 
तत्काल इसे अब पूर्ण करें .

महारानी के साथ साथ 
मैं आर्य कुल की नारी हूँ ;
इस प्रसंग से आहत हूँ 
क्या अपनाम की मैं अधिकारी हूँ ?

प्रमाणित कुछ नहीं करना है 
अध्याय सिया का बंद करें ;
प्रभु ! राजसिंहासन उसका है 
जिसको प्रजा स्वयं पसंद करे .

है विश्वास अटल मुझ पर '
हे प्रिय आपकी बड़ी दया  ;
ये कहकर राम के चरणों में 
सीता ने अपना शीश धरा .

होकर विह्वल श्री राम झुके 
सीता को तुरंत  उठाया था ;
है कठोर ये राज-धर्म जो 
क्रूर घड़ी ये लाया था .

सीता को लाकर ह्रदय समीप 
श्री राम दृढ   हो ये बोले;
है प्रेम शाश्वत प्रिया हमें 
भला कौन तराजू ये तोले ? 

मैंने नारी सम्मान हित 
रावण कुल का संहार किया  ;
कैसे सह सकता हूँ बोलो 
अपमानित हो मेरी प्राणप्रिया ?

दृढ निश्चय कर राज धर्म का 
पालन आज मैं करता हूँ ;
हे प्राणप्रिया !हो ह्रदयहीन  
तेरी इच्छा पूरी  करता हूँ .

होकर करबद्ध सिया ने तब 
श्रीराम को मौन प्रणाम किया ;
सब सुख-समृद्धि त्याग सिया ने 
नारी गरिमा को मान दिया .

मध्यरात्रि  लखन   के  संग 
त्याग अयोध्या गयी सिया ;
प्रजा में भ्रान्ति ये  फ़ैल गयी 
''श्री राम ने सिया को त्याग दिया ''!!! 
                                            शिखा कौशिक